कुछ कहानियाँ
हमेशा अधूरी रह जाती हैं.
उन कहानियों के किरदार हम ज़रूर होते हैं
पर कहानीकार कोई और ही है
वो आदि से अंत तक कहानी लिखता रहता है
उन कहानियों में मेरे किरदार बदलते रहते हैं
मैं अपने किरदार भी खुद नहीं चुन पाता
उन किरदारों का चुनाव भी वो ही करता है
इस कहानी में नायक और खलनायक कोई और नहीं
मैं ही हूँ
वक़्त और परिस्थितियाँ मुझे कभी नायक तो कभी खलनायक बनाती हैं
मेरा ही रक्त बहता है
और खंजर भी मेरा होता है
और कहानीकार मुझ से नये द्र्श्य करवाता रहता है
समय के मंच पर नयी कहानियों का मंचन यूँ ही चलता रहता है
अनवरत ...
शायद मुझे यूँ ही लगता है
कि
कुछ कहानियाँ अधूरी रह गयीं