Tuesday, February 20, 2018

alfaz

मेरे अल्फ़ाज़ अब मुझसे फरेब करते हैं
न दिल को बयां करते हैं
न आंखों की जुबाँ समझते हैं
बेख़ौफ़ होकर जिनसे मिलते थे कभी
वो लोग नज़रों से हया करते हैं
न जाने कितने चेहरों को समेटें हैं मेरे अल्फ़ाज़
अपनी पहचान को आयने में ढूंढा करते हैं
कभी माज़ी को , कभी हालात को
और कभी खुद को बहका कर खुश हुआ करते हैं
मेरे अल्फ़ाज़ मेरी आवारगी को जीया करते हैं
धोखेबाज़ सी फितरत है ज़िंदगी की
फिर भी हम खुद से मोहब्बत किया करते हैं।
  

Wazood

 लोगों  की इस भीड़ में खोया सा रहता हूँ  फिर भी में अक्सर तनहा तनहा रहता हूँ  दुनियादारी क्या चीज़ है मुझे समझ नहीं आती  मेरी ये आवारगी मुझ को...