Monday, September 6, 2010

kaanch ki pyaali


कांच की प्याली में
गर्माहट लिए
आवारा सी भाप उठती है
एक हलके नशे की सतह से
फिर एक हाथ
बढ़ता है उसको थामने
धीरे धीरे
प्याली उठती है
बढ़ती है चूमने को
किसी के होटों को
फिर
खाली कर देती है
अपने आप को
उन होठों के वास्ते
और
मिटा देती है थकान
अपने मेहरबान की
लुटा के अपना सब कुछ
काच की प्याली
बार बार खाली होती है
तैयार  होती है
हर बार
किसी मेहरबान के होठों पर
लुटने के लिए 

1 comment:

  1. Again a masterpiece.
    I would love to find poems in such small things in life.

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Wazood

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